मेरी कहानी मेरी ज़बानी
यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है जो कि मेरे जीवन से जुड़ी हुई है। घर से दूर इस अंजान शहर में एक लड़का किस तरीके से अपने जीवन को व्यतीत करता है छोटे से शहर से निकलकर इस बड़े शहर के रंग ढंग में ढ़लने की कोशिश करता है हर एक नई सुबह बड़ी चुनौतियों के साथ शुरू होती है । और रात होते ही कितना खोया कितना पाया का हिसाब नहीं लगा पाता। गु़म सा चेहरा लिये हुए सोचता रहता है अपनी नाकामियों को,इस उम्मीद में रहता है कि शायद कल का दिन आज से बेहतर होगा,घर के हालात बेहतर होंगे , लोग बेटियों को पराया कहते हैं लेकिन सच कहूँ तो बेटे भी पराए होते हैं । कोई भी कहानी मुकम्मल नहीं हो पाती हर रोज एक नई कहानी एक नए सपने खुद के अंदर जन्म लेते हैं । मैं जब 10 साल का था तो बाप का साया सर से हट गया बाप के बगैर बचपन तो अधूरा रह ही जाता है नन्हे क़दम हो और अचानक रास्तों पर एक बड़ा सा पत्थर आ जाए और उंगली थामने वाला कोई ना हो तो इंसान मुंह के बल ही गिरता है ना हालांकि घर का सबसे छोटा और लाडला बेटा होने के बाद जिम्मेदारियों का बोझ सर पर नहीं लादा गया लेकिन कब तक । कभी तो यह लाडला बेटा बड़ा होगा और इस रफ्तार भरी दुनिया के संग चलने की कोशिश में होगा धीरे-धीरे समय बीतता गया और नई-नई ख़्वाहिशें भी जन्म लेने लगीं, आखिर चिड़िया अपने बच्चों को कब तक खाना खुद से खिलाती रहेगी एक दिन खुद ही खाने की तलाश में निकलना ही पड़ता है बच्चों के बड़े होने के बाद मां भी अपनी गोद से उतार देती है फिर अचानक से मालूम चला कि इस लाडले को भी निकलना ही पड़ेगा अपने सपनों की उड़ान की खातिर अपनों से दूर किसी अनजान शहर में बसना पड़ेगा। फिर क्या गुज़रे हुए यादों की गठरी को सहेजते हुए निकल पड़ा देश की राजधानी की ओर ,घर की परेशानियाँ और बचपन के सपने मुझे सोने नहीं देते और यह रोज़ की भागा दौड़ी वाली जिंदगी मुझे कभी किसी के होने भी नहीं देते , और मेरे दोस्तों की शिकायत रहती है कि मैं मुस्कुराता बहुत हूंँ , न खाने की चिंता ना वक्त का ख़्याल की कब सवेरे से रात गुज़र जाती है! माँ से दूर इस बड़े शहर की रफ्तार भरी दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना और इस छोटे से किराए के घर में घुट घुट कर रहना मानो अंदर से दम घुटने लगा हो , कभी-कभी ऐसा महसूस होता है जैसे यह कमरे के लटके हुए पंखे मुझे घूर रहे हो और ये दीवारें मुझे दबाने के लिए दौड़ी चली आ रही हो , कितना मुश्किल होता है ना छोटे से शहर से निकलकर एक भागा दौड़ी वाली जिंदगी में घुल-मिल कर रहना कभी-कभी सोचता हूंँ कि सब कुछ छोड़ कर चला जाऊं लेकिन घर पर बैठी वो माँ मुझसे बहुत उम्मीद लगाई हुई है। मुझे याद है जब मैं पहली बार घर से पढ़ाई के लिए दिल्ली जैसे अधिकांश जनसंख्या वाले शहर में आना हुआ उस दिन मुझे विदा करके मेरी माँ दरवाजे़ के पीछे खड़ी घंटों रो रही थी और मैं भी अपने आंसुओं को छुपाते हुए स्टेशन की ओर चलने लगा मेरे भी आंसू थम नहीं रहे थे लेकिन क्या करूं लड़का हूंँ ना लड़कें थोड़ी रोते हैं इतना बड़ा झूठ न जाने कैसे कोई कह देता है । ट्रेन में बैठने के बाद मानो पीछे से मेरा शहर मुझे आवाज़ दे रहा हो लेकिन मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा क्योंकि मैं अपने आंसुओं को छुपा रहा था और कहते हैं ना कि आगे बढ़ने की जब ठान ली तो पीछे मुड़कर नहीं देखते , धीरे-धीरे ट्रेन की रफ्तार बढ़ने लगी और मेरे आंसुओं की भी , मैं विंडो सीट पर था ट्रेन की रफ्तार इतनी तेज़ हो गई कि मेरे अपने मुझसे पीछे छूटने लगे मेरी बोगी में बहुत सारे लोग थे लेकिन मेरा अपना कोई नहीं था मुझे दिलासा देने के लिए रास्ते में मिलते हर पेड़ पौधे मेरी विंडो से टकराते हुए मुझे दिलासा दे रहें थे लेकिन ट्रेन की रफ्तार इतनी तेज़ थी कि वह भी मुझसे पीछे हो जा रहे थे और फिर मैंने अपनी तनहाइयों से बातें करनी शुरू कर दी , कहते हैं ना कि जब आपके साथ कोई ना हो तो आपकी सबसे अच्छी दोस्त तन्हाई आपके साथ होती है कभी -कभी सोचता हूं कि क्या इतना ज़रूरी होता है अपने सपनों को पंख देना जिसकी वजह से हर रोज़ मैं मुंह के बल गिरता हूंँ! ये कहानी अभी भी ख़त्म नही हुई हैं जिंदगी से अपने सपनों की उड़ान की जंग अब भी जारी है!
मैंने लफ्ज़ पिरोने में लहू थूक दिये
महज़ आप इसे कहानी समझते हैं
ज़ैदुल हक़
कलमकार ✍️