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Saurav Kumar (BAJMC 3rd sem)

मैंने ऊपर “कॉमेंट वॉर” का जिक्र किया है, जो आज के दौर में सोशल मीडिया पर आम हो गया है। इसका मतलब है कि किसी पेज द्वारा पोस्ट या रील अपलोड करने पर, खासकर जब वह किसी धर्म, व्यक्ति, या विवादित विषय से संबंधित हो, तो दो गुटों के बीच तीखी बहस शुरू हो जाती है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई पोस्ट भगवान श्री राम के बारे में हो और उस पर किसी मुस्लिम नाम वाले अकाउंट से आपत्तिजनक टिप्पणी की जाए, तो तुरंत “कॉमेंट वॉर” शुरू हो जाता है।

यह बात लिखने का मेरा मकसद किसी को आहत करना नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर हो रही इस प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकर्षित करना है। यदि इसे गंभीरता से समझा जाए, तो हम देख सकते हैं कि हमारी सोच और व्यवहार किस दिशा में जा रहे हैं। आज के समय में, लोग दूसरे धर्म से संबंधित किसी व्यक्ति के साथ फोटो तक साझा करने से कतराते हैं। उदाहरण के लिए, एल्विश यादव और मुनव्वर फारूखी आपस में दोस्त हैं, लेकिन उनके समर्थक सोशल मीडिया पर जय श्री राम और अल्लाह हू अकबर के नारों के साथ आपस में लड़ रहे हैं।

यह समस्या केवल धर्म तक सीमित नहीं है। यह पीढ़ी की मानसिकता और सोशल मीडिया पर बर्बाद हो रहे समय की भी बात है। “कॉमेंट वॉर” का नतीजा सिर्फ समय की बर्बादी है। लोग ऐसा महसूस करते हैं जैसे वे किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय मुद्दे को सुलझा रहे हों, जबकि असल में वे बेकार बहसों में उलझे हैं। कभी विराट कोहली और रोहित शर्मा की तुलना को लेकर तो कभी हार्दिक पंड्या की कप्तानी को लेकर लोग एक-दूसरे को गालियां देते हैं।

सोशल मीडिया पर केवल लड़ाई नहीं, बल्कि असभ्यता भी बढ़ रही है। युवाओं के कपड़े छोटे होते जा रहे हैं और उनके कीबोर्ड पर अश्लीलता बढ़ती जा रही है। यह हमारे देश की संस्कृति को निचले स्तर पर ले जा रहा है।

अगर कोई कहे कि “कपड़े नहीं, सोच छोटी है,” तो मुझे खुशी है कि मैं अपनी संस्कृति के हिसाब से “छोटी सोच” वाला हूं। मेरे देश में छोटे कपड़े पहनना असभ्यता मानी जाती है, और मुझे अपनी इस सोच पर गर्व है। लोग अपनी सभ्यता भूलकर दूसरों की सोच को तुच्छ बताने में लगे हैं।

हमारी संस्कृति पर पश्चिमी सभ्यता का असर इतना गहरा हो गया है कि हाथ से खाना खाने वाले को भी छोटी सोच का समझा जाता है। बड़े रेस्टोरेंट में हाथ धोने के लिए बेसिन तक नहीं मिलते। क्या यह हमारी संस्कृति की अनदेखी नहीं है?

इन सभी मुद्दों पर सोचने के बाद एक सवाल उठता है—”यह सोच उत्पन्न कहां से हुई?” शायद यह अंग्रेजों से सीखा गया और बाकी सोशल मीडिया ने सिखा दिया। हो सकता है मैं गलत हूं, लेकिन मुझे बताइए, क्या आपको नहीं लगता कि आधुनिकता को अपनाने की प्रक्रिया में हम अपनी संस्कृति से इतना दूर हो गए हैं कि वह हमें वापस बुला रही है?

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