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त्योहार एक समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला एक कार्यक्रम है और उस समुदाय और उसके धर्म या संस्कृतियों के कुछ विशिष्ट पहलुओं पर केंद्रित है । इसे अक्सर स्थानीय या राष्ट्रीय अवकाश , मेला या ईद के रूप में चिह्नित किया जाता है ।

त्योहार अक्सर विशिष्ट सांप्रदायिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए काम करते हैं, विशेष रूप से देवी-देवताओं या संतों को याद करने या धन्यवाद देने के संबंध में: उन्हें संरक्षक त्योहार कहा जाता है । वे मनोरंजन भी प्रदान कर सकते हैं , जो बड़े पैमाने पर उत्पादित मनोरंजन के आगमन से पहले स्थानीय समुदायों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण था। त्यौहार जो सांस्कृतिक या जातीय विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, समुदाय के सदस्यों को उनकी परंपराओं के बारे में सूचित करना चाहते हैं; कहानियों और अनुभवों को साझा करने वाले बड़ों की भागीदारी परिवारों के बीच एकता का साधन प्रदान करती है ।

कई त्योहारों की धार्मिक उत्पत्ति होती है और पारंपरिक गतिविधियों में सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व होता है। क्रिसमस , रोश हसनाह , दिवाली , ईद अल-फितर और ईद अल-अधा जैसे सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक त्यौहार वर्ष को चिन्हित करने के लिए काम करते हैं।

इसी क्रम में हम बात करने वाले हैं उत्तराखंड राज्य के ख़ूबसूरत पहाड़ी त्योहार के बारे में जिसका नाम ही बहुत प्यारा है।

फूलदेई: फूलों और फूल जैसे बच्चों के नाम पहाड़ों का एक त्योहार

पहाड़ की विशेषता है कि जीवन में तमाम चुनौतियां, संकट होने के बाद भी सामाजिक उल्लास में कमी नहीं रहती। फूलदेई भी कुछ ऐसा ही पर्व है।

उत्तराखंड के पहाड़ों का लोक पर्व है फूलदेई। नए साल का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला ये त्योहार उत्तराखंड के सभी गांवों और कस्बों में मनाया जाता है।

यह खूबसूरत दिन प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है। फूलदेई बताता है कि प्रकृति के बिना इंसान का कोई वज़ूद नहीं।

यह पर्व सर्दी का अंत और हल्की-हल्की गर्मी का आगाज़ होता है, जब मौसम अधिक रोमांचित हो जाता है, जिस समय हर पहाड़ों पर नए-नए फूलों-पौधों का जन्म होते दिखता है। बुरांश और बासिंग के पीले, लाल, सफेद फूल और और इन्हीं फूलों की तरह बच्चों के खिले हुए चेहरे…

चैत के महीने की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल गयी रहती है और पहाड़ की सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ चाहे वह कुमायूँ के हों या गढ़वाल के पहाड़ हों वह सभी बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है।

कहने को तो यह त्योहार ख़ास तौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है, लेकिन बच्चों के साथ बड़े बूढ़े बुज़ुर्ग भी भरपूर लुफ़्त उठाते हैं।

फूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को रिंगाल की टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ भेली(गुड़), चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं।

इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर ऱखकर लड़कियां उस घर में खुशहाली की मन्नत मांगती हैं और अन्य घरों की ओर बढ़ती जाती हैं

इस दौरान एक खूबसूरत लोकगीत भी भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई।

हे जी सारियों मा फूली गे होली फ्योंली लयेड़ी मै घार छोड्यावा ।।

धन्यवाद।

लेखक – ऋषभ उपाध्याय, नोएडा स्थित गलगोटिया यूनीवर्सिटी में पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं।

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