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( जैसा की मैंने जिक्र किया था कि मुझे चाय पर लिखना बेहद पसंद है तो मैंने सोचा शुरुआत चाय से ही क्यूँ ना की जाए और ये रही चाय के उपर मेरी कुछ पंक्तियाँ )…

घर से निकला था बोलकर जाता हूँ काम पर,

रुक गये कदम साथ दोस्तों के चला गया चाय की दूकान पर।

पहुँचते ही चाय की दुकान पर दिल सबका जाता है बहक,

आती है जब चाय बनने की महक।

आती है जब सबके हाथों में चाय की प्याली,

फिर सबने एक- दुसरे पर नजर डाली।

चाय की घूंट के साथ शुरू होता है बातों का सिलसिला,

करते है सब एक – दुसरे से सिकवा और गिला।

ऐसी बातें नहीं होती दुनिया जहान में,

जो चाय पीते वक्त होती है चाय की दुकान में।

हर एक घूंट के स्था होता है एक अलग मुद्दा,

कहते कैसे चलेगा देश जब सरकार ही है गुमशुदा।

पीते वक्त चाय होती है कुछ ऐसी बातें जो हम ख नहीं पाते यारों से,

फिर भी वो बातें हो जातीं हैं आँखों के इशारों से।

खुशनुमा रहता है माहौल बांटे होती हैं सबकी निराली,

जब जाती रहती है होठों तक चाय की प्याली।

थम जाता है सबके बातों के कहर,

जब चाय की घूंटों का सफ़र।

खत्म होने पर चाय, बात इसपे जाती है ठहर,

कि ऐसे ना आया करो चाय की दुकान पर,

वरना निकाल दिए जाओगे ना जा पाओगे अपने काम पर।

~ सौरभ सिंह

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