नमस्कार!
आज की महफिल को रंगीन करने के लिये आपकी खिदमत में पेश है एक कविता, जिसमें एक बुढउ जो कि अपने अंतिम पड़ाव पर है चलिये देखते हैं उनकी जिंदगी की आखिरी ख्वाहिश!
कहीं गुम हो गया है ग़ुजरा हुआ ज़माना।
चहचहाता हंसता मटकता हुआ ज़माना।
वे खिले हुये फूल भी मुरझाने लगे हैं।
वे हरे भरे खेत भी अब डराने लगे हैं।
जिंदगी की मुस्कुराहट जाने कहां छिपी बैठ गयी।
अकेलेपन की घबराहट सिर पर आकर नाच रही।
संतरे से मुख पर नाज करती थी महफिल।
बिखरे हुये फूल से डरते हैं ये भौरे।
बांट दिया तुमने इस ज़िन्दगानी को।
अरे दुनिया वालों! कोई मेरी भी सुनो इस कहानी को।
उजडे हुये चमन को फिर से सजाना है।
अमिया की बगिया में बौर फिरसे लाना है।
कडकडाती सर्द में भी धूमने जाना है।
चिलचिलाती धूप में तालाब में जाना है।
होमवर्क भैंस के पीठ पर लगाना है।
चिंकी को सताना है।
पिंकू को चिढ़ाना है और फिर।
मास्टर जी के कार्टून को ब्लैकबोर्ड पर बनाना है।
स्कूल की कक्षाओं को बंक कर जाना है।
दो तीन बार कमसे कम फेल हो जाना है।
नाचना है, गाना है और जी भर के चिल्लाना है।
आज फिर से मुझको अपने बाबू की डांट खाना है।
और अम्मा की गोद में झटपट लिपट जाना है।
दादा दादी की कहानियों में फिर से चले जाना है।
इस बार पुलिस नही चोर-चोर खेलना है।
मक्के के खेत में मचान पर थाली बजाना है।
चिडियों को खेत से भगाना है
कंचा गोली और टायर भगाना है।
श्यामू की बगिया से आम चुराना है।
काश कोई फिर से कोई इतना दुलार देदे
इस कफस को छोड़ कर जोकर का टाइटल देदे
बस झांक कर वापस आ जाउॅगा वहां से
इस आखिरी ख्वाहिश को कोई झूठी गवाही ही देदे।
आखिरी इक्षा, यही दुआ करता हूॅ रब से
इस मासूम से बचपन को छीने ना किसी को।
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